मजबूरियां शराफ़त को भी ले आती है बाज़ार में
साथ रखना हमेशा बुजुर्गों को अपने
ज़ंजीर रिश्तो की पड़ी रहती है परिवार में
आज न जाने क्या ग़रज़ निकल आई
परिंदा ख़ुद ही सर पटकने लगा है दीवार में
यह कैसी सज़ा मुझें वो शख़्स दे गया
जान बख़्श दी मेरी उस क़ातिल ने पलटवार में
ना दिखाया करो डर सैलाबों का सरफ़रोशों को
हमारे हौसले से ज़्यादा धार नहीं तुम्हारी तलवार में
वज़ह ऐसी के अपने लबों पे चुप्पी रखता हूं
मुझपे इल्ज़ाम कई लगे हैं मोहब्बत के कारोबार में
इन ख़्वाहिशों के शहर में बह रही है आंधियां
किशती साहिल पे आ जाएगी ग़र हिम्मत हो पतवार में
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