Saturday, 14 September 2024

नक़ाब शायरी

















यूं आसान नहीं होता सच झूठ समझ पाना
कईं नक़ाब पड़े हैं इक चेहरे पे आजकल

कब तक मुझें पाबंदियों कि हयात में जीना होगा
किस फ़र्ज़ से गै़रत के नाम जहन्नुम में जीना होगा

रुख़ से नक़ाब हटाकर नज़र अंदाज़ करती हो
माज़रा क्या है जो हिजाब से दीदार करती हो?

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