सबके कर्ज़ उतारे जा रहे हैं
कुछ बे-फ़र्ज़ उतारे जा रहे हैं
22 21  122  2122
अपने हाल गर्दिशों में है यारों

उनके नसीब संवारे जा रहे हैं


खुदगर्ज़ बड़े हैं लोग जो एहसान भूल गये
हर शख़्स की ख़ातिर दिया जो बलिदान भूल गए
आंधियों से गुज़ारिश है अपनी हद में रहें
पल भर हमारी क्या आंख लगी औकात भूल गए

यह रखना याद मुनाफ़े की तिजारत के वास्ते
इश्क़ की नई दुकानों पे कीमत सस्ती होती है

ना दिखाया करो डर सैलाबों का सरफ़रोशों को
हमारे हौसले से ज़्यादा धार नहीं तुम्हारी तलवार में


उसने अपनी चाहत का इज़हार जो किया
अधूरी मेरी एक ग़ज़ल मुकम्मल हो गई

मेरी उम्मीद पे मेरे अपने ही खरे उतरे है
ग़ैर क्या पता मैं किस तरह बहलाता हूं 

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