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Monday, 16 December 2024








सबके कर्ज़ उतारे जा रहे हैं
कुछ तो बे-फ़र्ज़ उतारे जा रहे हैं
अपने हालात तो गर्दिशों में है
उनके मुक़द्दर संवारे जा रहे हैं

खुदगर्ज़ बड़े हैं लोग जो एहसान भूल गये
हर शख़्स की ख़ातिर दिया जो बलिदान भूल गए
आंधियों से गुज़ारिश है अपनी हद में रहें
पल भर हमारी क्या आंख लगी औकात भूल गए

यह रखना याद मुनाफ़े की तिजारत के वास्ते
इश्क़ की नई दुकानों पे कीमत सस्ती होती है


मय पीकर तो मेरे जज़्बात नहीं संभलते मुझसे
होश में रहता हूं तो ख़ामोश बहुत रहता हूं

मेरी नज़रें जब उसकी जुल्फ़ों में उलझ जाती है
जागते रहते हैं रात भर, कमबख़्त नींद कहां आती है

तेरे चेहरे पर जज्बातों की शबनम लिपटी है 
अब मैं मुहब्बत कहूं या परेशानी कहूं इसे

दिल बड़ा चाहिए मोहब्बत के निशां छुपाने में
हर किसी से तो यह तूफान संभाला नहीं जाता

उसने अपनी चाहत का इशारा जो किया
अधूरी मेरी एक ग़ज़ल मुकम्मल हो गई

मेरी उम्मीद पे मेरे अपने ही खरे उतरे है
ग़ैर क्या जाने मैं किस तरह बहलाता हू

Friday, 6 December 2024

Romantic Shayari (Double)














झूठ नहीं कहता कईं मोहब्बत मैंने की
हासिल की उम्मीद ना रखी बस दिल तक ही रही

मैंने फिराई थी यूं ही रेत में उंगलियां
ग़ौर से देखा तो तेरा अक़्स बन गया

कमबख्त़ रात को भी चिढ़ तुझसे हो गई
बैठू जो सोचने ढ़ल जाती है तावली

मुक़द्दर ही मेरा खराब है शायद
वरना खुशनसीब वो हैं जो उनके करीब हैं

मालूम होता ग़र ये खेल लकीरों का
तो ज़ख्मी कर हाथों को तेरी तक़दीर लिख लेता

यह पैग़ाम आया ख़ुदा का मुहब्बत कर ले 'सत्यं'
अब क्या कुसूर मेरा जो दिल उन पे आ गया

यह कैसे मुकाम पर हम आ खड़े हुए
तुम्हें दिल में बसाकर भी तन्हा से लगते हैं

यह कैसी सज़ा मुझें वो शख़्स दे गया
के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा

तुम बैठी रहो देर तक मेरी नज़रों के सामने
आज मेरा मन है बहुत मदहोश होने का

वो बेरुखी करते हैं मेरे दिल से जाने क्यों
जिन्हें करीब से तमन्ना देखने की है

जिनका घर है दिल मेरा वो दूर जा बैठे
भला कैसे किसी अजनबी को मैं पनाह दूं

पूछता जो खुदा तेरी रजा क्या है
तो सबसे पहले तेरा नाम मैं लेता

तेरे दीदार में कोई बात है शायद
लड़खड़ाता है जिस्म मेरा इज़ाज़त के बिना

तमाम कोशिशें बेकार ही रही संभल पाने की
जब डूब गए हम तेरी आंखों की गहराई में

शायद मेरी हसीना मेरे सामने खड़ी है
इक मौलवी ने कहा था वो मगरूर बड़ी होगी

ग़र होती ख़्वाबों पे हुकूमत अपनी
तो हर शब तेरा दीदार मैं करता

एक मुद्दत से ज़ुबां ख़ामोश है मेरी
सोचा कह दूं हाल-ए-दिल तड़प अच्छी नहीं होती

मैं एक मुसाफ़िर हूं तेरी रज़ा की किश्ती का
चाहे साहिल पे ले चल चाहे डुबा दे मुझें

खु़दा ने ही बख़्शी है रुसवाई मेरे मुक़द्दर में
वरना सितमग़र कोई मासूम नहीं होता

तुम भी तोड़ दो दिल मेरा जाओ खुश रहो
दर्द में ही पला हूं अब एहसास नहीं होता

एक रोज़ उसे मांगेंगे, दुआ कर ख़ुदा से
फ़िलहाल लुत्फ़ उठा रहा हूं, इंतज़ार का

कोई ऐसी करामात ख़ुदा, उसे भूल जाने की कर
के याद भी ना रहू और इल्ज़ाम भी ना सिर हो

मालूम है मेरे दिल की दहलीज़ उन्हें लेकिन।
ज़िद पे अड़े हैं कोई उनको पुकार ले।

एक रोज़ उसे मांगेंगे, दुआ कर ख़ुदा से
फ़िलहाल लुत्फ़ उठा रहा हूं, इंतज़ार का

मैंने ज़माने की हर शय को बदलते देखा है
इक तेरी याद के मौसम के सिवा

क्यों लगाये मैंने ख़्वाहिशों के मेले
मालूम था जब ख़्वाब हक़ीक़त नहीं होतें

कैसे निकालूं दिल से बता तुझें सनम
मैंने तो दर आये को भी गले लगाया है

तुझे सताने की तो मुझे बर्दाश्त की नेमत बक्शी है
ख़ुदा ने हर शख़्स को बड़ी फ़ुर्सत से बनाया है

वज़ह ऐसी के अपने लबों पे चुप्पी रखता हूं
मुझ पे इल्ज़ाम है मैं अपना हक़ जमाने लगता हूं

काश के ये झूठ नापने का कोई पैमाना होता
तो मेरे मुस्कुराने का राज़ उसने समझा होता