बाज़ (शायरी)
कल मिरी परवाज़ ऊंचाई छू लेगी
आज मैं नाख़ून-ओ-पंख नोच रहा हूं
बाज़ इकला ही बुलंदी छूता है
चंद कव्वों पे यहां नइं नइं रवानी आयी है
बाज़ से टकरा रहे हैं मौत दर तक लायी है
हवा चाहे जिधर भी उडे ज़माने की यहां लेकिन
रियासत ए फ़लक तो बाज़ के क़दमों में रहती है
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