Sher 7 (मुकम्मल)





ये मंजर भी मैं इक रोज़ दिखलाऊँगा उसे
किसी सरफ़रोश से रू-ब-रू कराऊँगा उसे
अभी हुक्म का इक्का बाकी है मेरी आस्तीन में
जब खेल ख़त्म करूँगा तो खेल जाऊँगा उसे

ख़ुदगर्ज़ बड़े हैं लोग, एहसान भूल गए
हर शख़्स की खातिर दिया बलिदान भूल गए
आंधियों से गुज़ारिश है, अपनी हद में रहें
पलभर हमारी आँख लगी, औक़ात भूल गए

उजाले कफ़न ओढ़कर सोने लगे
सहारे सिरों को झुका रोने लगे
जहाँ देखो हर तरफ मातम है छाया
फ़रिश्ते ख़ुदा की मौत पर रोने लगे

वो मेरी हद-ए-तसव्वुर से गुज़रता क्यों नहीं
नशा उसके अन्दाज़ का उतरता क्यों नहीं
मैं हैरान हूँ ये सोचकर उसके बारे में
ढलता है वक़्त, हुस्न उसका ढलता क्यों नहीं

अलग सोच ज़माने की बना लेनी चाहिए,
उठे जो भी सदाएँ, वो दबा देनी चाहिए।
ज़रूरी नहीं शमशीर क़त्ल को ही उठे,
दहशतगर्दी को भी लहरा देनी चाहिए।

मेरे दिल में वो शम्अ-ए-मुहब्बत जलाता रहा
मेरे जुनून पर कामयाबी का रास्ता बनाता रहा
जिसे लेकर गया था मैं एक रोज़ बुलंदी पर
वही अपनी नज़र से मुझे गिराता रहा


Comments

Popular posts from this blog

भारत और भरत?

अंबेडकर और मगरमच्छ

भारत की माता ‘शूद्र’ (लेख)