वो देते हैं नसीहत मोड लो कदम दर्दनांक राहे-उल्फ़त से
दलील जाहिर करती हैं तजुर्बा यूं ही नहीं बनता
हमने चरागों को तालीम कुछ ऐसी दे रखी थी
के घर जल गए दुश्मन के इल्ज़ाम भी हवाओं पे गया
देख कर साज़िश मेरे जिस्म और मिज़ाज की
होठ चुपचाप सहते रहे आंखों को गवारा ना हुआ
रौनक ना देखिए मेरी सूरत की ए जनाब
मेरे ग़म को छुपाने का राज़़ है ये
मैं अपने चेहरे पर खुशी की झलक रखता हूं
अंदर से टूटा हूं मगर दुश्मन को परेशां रखता हूं
मत पूछ तू मेरी दास्तां-ए-ग़़म मुझसे
मैं बेवजह किसी के आंसू गिराना नहीं चाहता
मैंने फिराई थी यूं ही रेत में उंगलियां
ग़ौर से देखा तो तेरा अक़्स बन गया
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