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धीरे धीरे

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राहे-उल्फ़त में क़दम ना ज़ल्दबाज़ी में बढ़ा तुम निकलना भी चाहोगे तो फंस जाओगे धीरे-धीरे इश्क़ है जनाब, शराब की क्या बिसात चढ़ गया है नशा तो उतरेगा धीरे-धीरे आगाज़ ए ज़िंदगी में आते हैं उतार-चढ़ाव बहुत तज़ुर्बे की तपिश में जलोगे तो संभल जाओगे धीरे-धीरे दबाई गई है कईं आवाज़ें मज़हब की आड़ में कईं औरत उठाने लगी है सिर अपना धीरे-धीरे खूबसूरती देखनी वाले की नज़र में होती है "सत्यं" ये बात समझनी चाहिए हर नाज़नीं को धीरे-धीरे हमने अभी सपना बोएं है जिंदगी नइ बोई कोई मिल जाए हमसफ़र तो बसा लेंगे घर धीरे-धीरे मेरे जेहन पे छाया है खुमार तेरी मुहब्बत का काश! तू भी तड़प उठे मेरी मुहब्बत को धीरे-धीरे

हम क्या उम्मीद करें?

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मेरे कांधे पे किसी मेहरबां ने हाथ तक ना रखा सरगोशी करें आगोश में कोई, हम क्या उम्मीद करें ख़्वाब उसने भी कोई मेरे नाम का देखा होगा हम यूं ही उसकी चाहत में हर रात नहीं जले ना दिन ढला ना शब गुज़री तन्हाई की कोई आके हमें बता दें हम करें तो क्या करें ये बात हमारी उल्फ़त की सारे जहां को है मालूम दीवारों की साज़िश है हम दोनों को ना पता चले अपनी हिफाज़त का ज़िम्मा अपने हाथ में लो सियासत का एतबार नहीं कब-किस ओर चाल चले जिम्मेदारियों ने मुझको सबसे दूर कर दिया अब तेरी फिक्र करें या मां की फिक्र करें एक उम्र गुज़ारी मुफलिसी की, जलाया लहू अपना हम यूं ही एक रात में तो शायर नहीं बने जब तक है तू सामने दो बात हंस के कर  क्या पता कल एक-दूसरे से हम मिले ना मिले