सर्दी पर शायरी | जाडे पे शेर शायरी
यूं तो जायज़ है मेरे जिस्म की कंपकंपाहट ’सत्यं’ एक तो सर्दी बहुत और सामने वो भी खड़ी है इस बार की सर्दी हिज्र में कुछ ऐसी कट रही है मैं यहां तप रहा, जुदा वो वहां तप रही है अबकी बार मौसम में क्या तब्दीली आई है बाहर सर्दी कड़ाके की अन्दर गरमी छाई है यह आलम शहनाई का होता तो अच्छा होता हिसाब जज़्बातों की भरपाई का होता तो अच्छा होता कमबख्त कंबल की आग भी अब बुझने लगी इस सर्दी इंतजाम रजाई का होता तो अच्छा होता कड़ी सर्दी, तेरी फ़िक्र और मेरे दिल का टूटना हर मौसम मेरे खिलाफ़ है ख़ुदा खैर करे इस उम्मीद में के अगले बरस बना लेगा रजाई अपनी एक शख़्श सर्दी से लड़ा मग़र महंगाई से मर गया।