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सर्दी पर शायरी | जाडे पे शेर शायरी

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यूं तो जायज़ है मेरे जिस्म की कंपकंपाहट ’सत्यं’ एक तो सर्दी बहुत और सामने वो भी खड़ी है इस बार की सर्दी हिज्र में कुछ ऐसी कट रही है मैं यहां तप रहा, जुदा वो वहां तप रही है अबकी बार मौसम में क्या तब्दीली आई है बाहर सर्दी कड़ाके की अन्दर गरमी छाई है यह आलम शहनाई का होता तो अच्छा होता हिसाब जज़्बातों की भरपाई का होता तो अच्छा होता कमबख्त कंबल की आग भी अब बुझने लगी इस सर्दी इंतजाम रजाई का होता तो अच्छा होता कड़ी सर्दी, तेरी फ़िक्र और मेरे दिल का टूटना हर मौसम मेरे खिलाफ़ है ख़ुदा खैर करे इस उम्मीद में के अगले बरस बना लेगा रजाई अपनी एक शख़्श सर्दी से लड़ा मग़र महंगाई से मर गया।

मुस्कुराहट पे मेरी पहरा बैठा दिया

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बैठा हुआ था सुकूं से एक साए तले मैं  किसी ने जला दिया घर मेरा, सहरा बना दिया कभी जो उस तरफ देखूं एक जन्नत नज़र आती थी किसी ने मुस्कुराहट पे मेरी, पहरा बैठा दिया अर्श की बुलंदियों पे था एक तेज़-परवाज़ कभी एक सैययाद की निग़ाहो ने, पिंजरे में ला दिया पीठ पीछे वो मेरी ख़ामियां गिनाता है मोहब्बत में जिसके सामने, सिर अपना झुका दिया उसकी एक नज़र से, मेरी तबीयत में बहार रहती थी फैर ली आंखें उधर, इधर वीराना बना दिया हम घबराकर ख़्वाब से आधी रात में जगते हैं एक सगंदिल ने, जां पे मेरी सदमा लगा दिया ख़्वाब अच्छे देखने का तो मुझको भी हक़ है फिर क्यों मेरे जज़्बात को उसने दबा दिया सबको लगा के मुझपे बुरे साये का असर है पागल थे उसके प्यार में हम, था ख़ुद को भुला दिया सोचा ना था इस मोड़ से भी गुजरेंगे हम 'सत्यं' हंसते हुए एक इंसान को मुर्दा बना दिया कभी नाम भी ना आता था मेरे लब पे मोहब्बत का वो ख़ुद साहिल पे खड़ा रहा, पर मुझको डूबा दिया