अब और क्या बाकी रहा कमाने में

उलझी-सी एक शाम मेरी ढली है कई ज़माने में हम खोए हुए थे बरसो से उस शहर पुराने में वो जैसा भी है उसे वैसे ही क़ुबूल कर जिंदगी रूठ जाती है, बेवजह आज़माने में हमने उतरन को भी बदन पे शौक़ से औढ़ा दुनिया सुकून ढूंढ रहा थी, नए पुराने में मेरे सिरहाने पर दो चिराग कर रहे थे उजाला अंधेरे कामयाब हो गये मुझे रुलाने में गुनहगारों से भरा यह जो शहर है यहां हर-एक लगा है, दूसरे की कमी गिनाने में ये सिलसिला कोई कल की बात तो नहीं माहताब रोशन है आफ़ताब से, हर ज़माने में साहिब-ए-मसनद को गुमां है, झूठी हवाओं पे लगे हैं नादान, मुरझाएं गुल खिलाने में मैंने रिश्ते संजोए, मुक़द्दर संवारे, सबको साथ रखा अब और क्या बाकी रहा कमाने में --------------------------------------- देखने के लिए लिंक पर क्लिक करें