नक़ाब शायरी

यूं आसान नहीं होता सच झूठ समझ पाना कईं नक़ाब पड़े हैं इक चेहरे पे आजकल कब तक मुझें पाबंदियों कि हयात में जीना होगा किस फ़र्ज़ से गै़रत के नाम जहन्नुम में जीना होगा रुख़ से नक़ाब हटाकर नज़र अंदाज़ करती हो माज़रा क्या है जो हिजाब से दीदार करती हो?