Sher 1 (मुकम्मल)
मेरे हुजरे में ना रख सामान मुजरे का काफ़िरों की बस्ती में इक नेक रहने दे मय पी कर नादां जज़्बात मेरे बहकते हैं होश में यार ख़ामोश मैं बहुत रहता हूं वज़ह ऐसी के लबों पर अपने चुप्पी रखता हूं मुझपे यह इल्ज़ाम है मैं हक़ जमाने लगता हूं मेरी नज़रें जब उसकी जुल्फ़ों में उलझ जाती है जगते रहते हैं रातों में नींद कहां आती है यह कैसी मुझे सज़ा दे गया वो सितंगार के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा आज यह कैसी मंज़िल पे हम आ खड़े हुए तुमको दिल में बसा कर भी तन्हा से लगते हैं मुश्किल है वफ़ा-ए-गुल की ज़िम्मेदारी खिलता सुबह शब तक मुरझा वो जाता हैं यू आसां नहीं होता सच झूठ को पाना कई पर्दे हैं अब पड़े एक चेहरे प जफ़ा फ़रेब दर्द अश्क़ होंगे महफ़िलों की तरह रस्ते में इश्क के मिलेंगे संग ए मीलों की तरह ख़ुदा की है रहमत ये मेरे मुक़द्दर में वगरना सितमगर वो मासूम ना होता कैसी तौबा कैसा सज़्दा बेगुनाह के लिए सब बे-ईमानी है यारों एक तन्हा के लिए मैं चेहरे पर खुशी की झलक रखता हूं अंदर से टूटा हूं दुश्मन नज़र रखता हूं आज जाने गरज़ कैसी निकाल आई आसमां इक जमीं पर पिघलने लगा दर्द...