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Showing posts from April, 2025

Sher 1 (मुकम्मल)

मेरे हुजरे में ना रख सामान मुजरे का काफ़िरों की बस्ती में इक नेक रहने दे मय पी कर नादां जज़्बात मेरे बहकते हैं होश में यार ख़ामोश मैं बहुत रहता हूं वज़ह ऐसी के लबों पर अपने चुप्पी रखता हूं मुझपे यह इल्ज़ाम है मैं हक़ जमाने लगता हूं मेरी नज़रें जब उसकी जुल्फ़ों में उलझ जाती है जगते रहते हैं रातों में नींद कहां आती है यह कैसी मुझे सज़ा दे गया वो सितंगार के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा आज यह कैसी मंज़िल पे हम आ खड़े हुए  तुमको दिल में बसा कर भी तन्हा से लगते हैं मुश्किल है वफ़ा-ए-गुल की ज़िम्मेदारी खिलता सुबह शब तक मुरझा वो जाता हैं यू आसां नहीं होता सच झूठ को पाना कई पर्दे हैं अब पड़े एक चेहरे प जफ़ा फ़रेब दर्द अश्क़ होंगे महफ़िलों की तरह  रस्ते में इश्क के मिलेंगे संग ए मीलों की तरह ख़ुदा  की है रहमत ये मेरे मुक़द्दर में वगरना   सितमगर  वो मासूम ना होता कैसी तौबा कैसा सज़्दा बेगुनाह के लिए सब बे-ईमानी है यारों एक तन्हा के लिए मैं चेहरे पर खुशी की झलक रखता हूं अंदर से टूटा हूं दुश्मन नज़र रखता हूं आज जाने गरज़ कैसी निकाल आई आसमां इक जमीं पर पिघलने लगा दर्द...

ग़ज़ल-1 (मुकम्मल)

सबके हिस्से हिस्सेदारी होनी चाहिए सबकी अपनी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए ख़ुद की ख़ातिर ख़ुद से भी फ़ुर्सत मांगा करो आंखों में इतनी ख़ुद्दारी होनी चाहिए इक मैं ही बेइंतेहा तुझपे मरता रहूं मिरे दिल पे तिरी दावेदारी होनी चाहिए रस्ता लंबा है दोनों की मंज़िल एक है हम में कोई रिश्तेदारी होनी चाहिए धोखा अपने ही दे देते हैं अक्सर यहां अपनी मुट्ठी में दुनियादारी होनी चाहिए कुछ ऐसे कर कायम हरसू अपना रुतबा हर गली कूचे में ताबेदारी होनी चाहिए