Sher O Shayari (मुकम्मल)

गुनाहों का सूरज निकाला जा रहा है
जनाज़ा बेबसी का निकाला जा रहा है
ज़माना जिसके नाम से हमें जानता है
उसी दौलत को बस निकाला जा रहा है

उजाले कफ़न ओढ़कर सोने लगे
सहारे सिरों को झुका रोने लगे
जहां देखो मातम है छाया हर तरफ
फ़रिश्ते ख़ुदा की मौत पर रोने लगे

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मेरे हुजरे में ना रख सामान मुजरे का
काफ़िरों की बस्ती में इक नेक रहने दे

मय पी कर तो मुझसे संभलते नहीं जज़्बात मिरे
होश में रहता हूं तो ख़ामोश बेहद रहता हू़ं

मेरी नज़रें जब उसकी जुल्फ़ों में उलझ जाती है
जगते रहते हैं रातों में नींद कहां आती है

यह कैसी मुझे सज़ा दे गया वो सितंगार
के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा

आज यह कैसी मंज़िल पे हम आ खड़े हुए 
तुमको दिल में बसा कर भी तन्हा से लगते हैं

मुश्किल है वफ़ा-ए-गुल की ज़िम्मेदारी
खिलता सुबह शब तक मुरझा वो जाता हैं

यू आसां नहीं होता सच झूठ को पाना
कई पर्दे हैं अब पड़े एक चेहरे प

जफ़ा फ़रेब दर्द अश्क़ होंगे महफ़िलों की तरह 
रस्ते में इश्क के मिलेंगे संग ए मीलों की तरह

ख़ुदा की है रहमत ये मेरे मुक़द्दर में
वगरना सितमगर वो मासूम ना होता

कैसी तौबा कैसा सज़्दा बेगुनाह के लिए
सब बे-ईमानी है यारों एक तन्हा के लिए

मैं चेहरे पर खुशी की झलक रखता हूं
अंदर से टूटा हूं दुश्मन नज़र रखता हूं

आज जाने गरज़ कैसी निकाल आई
आसमां इक जमीं पर पिघलने लगा

दर्दे-इश्क़ में मैं बद-हवास तो नहीं
ला-इलाज हूं कुई बदज़ात तो नहीं

यूं ही नइं कोई किनारा करता है
इकला बाज़ अक्सर बुलंदी छूता है



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