Sher 9 (मुकम्मल)
ग़ज़ल उगती नहीं हरगिज़ बंजर ज़मीन पर, यह क़सीदा तजुर्बे के हाथ से बुना जाता है माँगी जा रही है राय मेरे बारे में , ग़लत आदमी मुझे ग़लत बता रहे हैं । मुफ़लिसी में मोहब्बत का अंजाम यूँ हुआ मैं चलता रहा और फ़ासले बढ़ते गए यह फ़र्क तो इंसानी नज़रिये का है सत्यं, वरगना हिदायत-ए-क़ुरआन-ओ-पुराण में ज़रा भी फ़र्क नहीं। बहुत ज़ालिम है दुनिया, ज़रा किनारा करो, खिलते चेहरों से यह हँसी चुरा लेती है। ग़ज़ल उगती नहीं हरगिज़ बंजर ज़मीं से यारो, यह क़सीदा तजुर्बे के हाथ बुना जाता है। हाँ, ये झूठ है कि मैं तुम पर मरता हूँ, तुम सच को तो सच मानने से रहे। कोई सिमट जाए मेरी सूनी बाहों में, है कोई दुनिया में बदनाम होने वाला? मैं समझता था वो समझता है मुझे, कौन खुदगर्ज भला समझता है मुझे। बस यही फ़लसफ़ा सर उठाए हुए हैं हम, मोहब्बत से, ज़माने से शिकस्त खाए हुए हैं हम।