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Showing posts from May, 2025

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हम बेखुदी में जिसको सज़दा रहे करते कभी गौर से ना देखा, पत्थर का बुत है वो बादलों से कहदो उसके घर जाके बरसे के याद हमारी भी उस बेख़बर को आए काश के ये झूठ नापने का कोई पैमाना होता तो मेरे मुस्कुराने का राज़ उसने समझा होता तुझे सताने की तो मुझे बर्दाश्त की नेमत बक्शी है ख़ुदा ने हर शख़्स को बड़ी फ़ुर्सत से बनाया है

Sher (मुकम्मल)

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बात लफ़्ज़ों में हो लाज़िमी तो नहीं ख़मुशी भी कहती है हाल ए दिल यहां दिल बड़ा चाहिए इश्क़ उनसे छुपाने को हर किसी से तो यह तूफ़ां संभाला नहीं जाता जब तुझे आदत मेरी लग जाएगी तू मिरी हालत को समझ पाएगी जब भी फुर्क़त ने तेरी सताया मुझे मूंद कर आंखें सूरत तिरी देखा किये तेरे  रुख़  पे  जज़्बात  की शबनम गिरी है अब मै प्यार समझूं या परेशानी कहूं इसे मय पी कर तो मुझसे संभलते नहीं जज़्बात   मिरे होश में रहता हूं तो ख़ामोश बेहद रहता हू़ं मुझे कोई बेबाक ही सा समझ रक्खा है? फिर इश्क़ तुझे खाक़ ही सा समझ रक्खा है? प्यार क्या है ये बीमार को पता है शिफ़ा है या सज़ा समझदार को पता है सबके हिस्से हिस्से-दारी होनी चाहिए सबकी चादरो-दीवारी होनी चाहिए टूटी खाट उधडी ही रजाई क्युं ना हो आंखों में मगर 'सत्यं' ख़ुद्दारी होनी चाहिए

गजल-2 (मुकम्मल)

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इश्क़ में बहोत लोगों के ख़सारे हो गए हमें भी मुहब्बत में ऐसे नज़ारे हो गए वैसे तो वो मुस्कुरा कर रोज़ देखा करती थी इस भरम में सब ज़माने बस पुराने हो गए चांद ने जो ओढ़ रक्खी थी हटा दी वो घटा आंखों के आगे हमें दिलकश उजाले हो गए जिस तरीक़े तौर से देखा हमें उस क़ातिल ने उसके सारे ऐब ओ ख़ामी हमारे हो गए जिसने मुड़कर भी मेरी जानिब ना देखा इक दफ़ा उसकी बेरुख़ी पे नामी मेरे फ़साने हो गए तेरी जुल्फ़ों की वो तासीर लबों का ज़ाइक़ा जाइज़ा तेरे बदन का सब ज़माने हो गए ------------------------------------------