गजल-2 (मुकम्मल)

इश्क़ में बहोत लोगों के ख़सारे हो गए
हमें भी मुहब्बत में ऐसे नज़ारे हो गए
वैसे तो वो मुस्कुरा कर रोज़ देखा करती थी
इस भरम में सब ज़माने बस पुराने हो गए
चांद ने जो ओढ़ रक्खी थी हटा दी वो घटा
आंखों के आगे हमें दिलकश उजाले हो गए
जिस तरीक़े तौर से देखा हमें उस क़ातिल ने
उसके सारे ऐब ओ ख़ामी हमारे हो गए
जिसने मुड़कर भी मेरी जानिब ना देखा इक दफ़ा
उसकी बेरुख़ी पे नामी मेरे फ़साने हो गए
तेरी जुल्फ़ों की वो तासीर लबों का ज़ाइक़ा
जाइज़ा तेरे बदन का सब ज़माने हो गए
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