Sher 2 (मुकम्मल)





बात लफ़्ज़ों में हो लाज़िमी तो नहीं
ख़मुशी भी कहती है हाल ए दिल यहां

दिल बड़ा चाहिए इश्क़ उनसे छुपाने को
हर किसी से तो यह तूफ़ां संभाला नहीं जाता

जब तुझे आदत मेरी लग जाएगी
तू मिरी हालत को समझ पाएगी

जब भी फुर्क़त ने तेरी सताया मुझे
मूंद कर आंखें सूरत तिरी देखा किये

तेरे रुख़ पे जज़्बात की शबनम गिरी है
अब मै प्यार समझूं या परेशानी कहूं इसे

मय पी कर तो मुझसे संभलते नहीं जज़्बात मिरे
होश में रहता हूं तो ख़ामोश बेहद रहता हू़ं

मुझे कोई बेबाक ही सा समझ रक्खा है?
फिर इश्क़ तुझे खाक़ ही सा समझ रक्खा है?

प्यार क्या है ये बीमार को पता है
शिफ़ा है या सज़ा समझदार को पता है


सबके हिस्से हिस्से-दारी होनी चाहिए
सबकी चादरो-दीवारी होनी चाहिए
टूटी खाट उधडी ही रजाई क्युं ना हो
आंखों में मगर 'सत्यं' ख़ुद्दारी होनी चाहिए


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