तुम निकलना भी चाहोगे तो फंस जाओगे धीरे-धीरे
इश्क़ है जनाब, शराब की क्या बिसात
चढ़ गया है नशा तो उतरेगा धीरे-धीरे
आगाज़ ए ज़िंदगी में आते हैं उतार-चढ़ाव बहुत
तज़ुर्बे की तपिश में जलोगे तो संभल जाओगे धीरे-धीरे
दबाई गई है कईं आवाज़ें मज़हब की आड़ में
कईं औरत उठाने लगी है सिर अपना धीरे-धीरे
खूबसूरती देखनी वाले की नज़र में होती है "सत्यं"
ये बात समझनी चाहिए हर नाज़नीं को धीरे-धीरे
हमने अभी सपना बोएं है जिंदगी नइ बोई
कोई मिल जाए हमसफ़र तो बसा लेंगे घर धीरे-धीरे
मेरे जेहन पे छाया है खुमार तेरी मुहब्बत का
काश! तू भी तड़प उठे मेरी मुहब्बत को धीरे-धीरे
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