काश! ऐसा होता। - कविता




एक प्रातः ऐसी थी
जब समस्त दिशाएँ महकी थी
वातावरण शुद्ध, शीतल, सुगंधयुक्त
हरयाली बिखरी दिखायी देती थी।

मैं अपने-पन में प्रसन्न, मग्न
मस्त तरंगों में बहा जा रहा था
चला जा रहा था बढ़ता ना जाने कहाँ
हवाओं के परों पर खिलखिला रहा था।

चौंक उठा उस दृश्य को देख
जब मेरे सामन कोई आ ठहरा था
दृष्टि चूम भी ना पायी मुखमंडल को उसके
बिखरें काले कैश का पहरा था।

मुझे देखा मुस्कुराकर, दूर चलने लगी
आत्मा को भी मेरी छलने लगी
मेरे मन की जिज्ञासा तीव्र बढ़ने लगी
पूछ बैठा ‘तुम अप्सरा हो या परी’?

मौन साधे सुकोमल होठ
ना उत्तर में हिल पायें
उठते-झुकते तिरछे नैन बस
निरंतर उत्तेजित करते जायें।

जब हुई उनकी कृपा मुझपे
मन के विचार सारे खो गये
चकित ही रह गया स्वयं में
मानो स्वर्ग के दर्शन हो गये।

न्यौछावर हो चला एक क्षण में
मैंने स्वयं को जैसे खो दिया
उनकी लुभाती कलाओं ने जब
प्रेम का संदेश दिया।

उत्सुक हो ज्यो ही मैं आगे बढ़ा
तभी गाल पर कसकर एक थप्पड़ पड़ा
सुबह-सवेरेे माताजी को देखा सामने खड़ा
वो प्रातःकालीन स्वप्न मुझें बहुत मेहंगा पड़ा

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