प्यार को त्याग भी कहते है - कविता
जिस पल तुम्हारा होता है
मन सोचता रह जाता है
बहुत दूर कहीं खो जाता है
मन करे गगन को उड़ जाऊं
और बादलों के घर जाऊं
मैं थाम-थाम के राहों में
मदमस्त पवन से बतलाऊं
ए बहारों, दिशाओं कहों
तुम्हें पहले तो ना देखा संवरते हुए
या खींचता है तुमको भी कोई
प्रेम के स्पर्श इशारों से
क्यों मन चाहता है छूना
अज्ञात बातें भी करना
निहारना अखंड समय तक और
हृदय में छिपाकर रखना
क्या है ये? क्यों है ये? और
क्यों मैं बहक-सा जाता हूं
अनजान कशिश होती हैं पर
कुछ भी समझ ना पाता हूं
सारे संजोय स्वप्न मेरे
एक पल में अधूरे लगते हैं
जब याद कभी आ जाता है कि
"प्यार को त्याग भी कहते है"
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