प्यार को त्याग भी कहते है (मुकम्मल)



एहसास प्रिय मेरे मन को,
जब क्षण तुम्हारा होता है।
मन सोच में डूबा रहता,
दूर कहीं खोता जाता है॥

उड़ने को मन चाहे नभ में,
बादल के घर तक पहुँचूँ।
पथ पर पवन बतियाने को,
मदमस्त हृदय से मैं रुचूँ॥

ओ बहारों! ओ दिशाओं!
क्यों रूप नया दिखलाते हो?
क्या तुमको भी खींच रहा है,
प्रेमिल संकेत इशारों से॥

क्यों मन चाहे छूना उसको,
अज्ञात कथा भी कह देना।
निहार निहारे अनंत क्षण,
हृदय में उसको रख लेना॥

क्या है ये? क्यों है ये ऐसा?
क्यों बहकाता मन को मृदु?
अनजान कशिशें खींचें हैं,
फिर भी समझ न पाता क्युं॥

सपनों के संचित उजियारे,
क्षणभर में क्यों ढल जाते हैं?
जब याद अचानक आती है—
“प्यार को त्याग भी कहते हैं।”

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