प्रकृति ने प्रेम को प्रत्येक प्राणी के अंदर जन्मजात बनाया है। कोई भी प्राणी इसे स्वतः सीख ही जाता है जिसे करने से उसे अत्यधिक संतुष्ट भी प्राप्त होती है। प्रेम इतना मधुर इसलिए बना है ताकि जगत में जीवोत्पत्ति निरंतर होती रहे। प्रेम का अंतिम चरण मिलाप ही होता है। यह एक स्वभाविक क्रिया है। यह विधान मनुष्य का अपना नहीं है। मनुष्य का मस्तिष्क तो सिर्फ ऐसे साथी का चुनाव करता है जो कि उसको संतुष्टि दे। यही वह कारण है जिसकी चाहत में वह दूसरों के प्रति आकर्षित होता है। संतान तो वह किसी के भी साथ पैदा कर सकता है लेकिन इसी बात को लोग आसानी से वासना बता देते है। और यदि उन्हीं लोगों की अपनी इच्छा पूछी जाए तो वे सहजता से इसे स्वीकार भी कर लेते हैं।
जिस ओर आप आकर्षित होते है, वहीं आपकी पसंद भी होती है। प्रेम की शुरुआत आकर्षण से ही होती है क्योंकि जब तक आप किसी व्यक्ति की ओर आकर्षित नहीं होंगे तब तक आप उससे प्यार कर ही नहीं सकते। प्यार करने के लिए जरूरी है कि वह तुम्हें पसंद हो और उसके लिए जरूरी है आप दोनों की सहमति।
अधिकतर देखा यह जाता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी के संपर्क में रहता है, तो वह उसके प्रति थोड़ा बहुत आकर्षित हो ही जाता है, चाहे वह व्यक्ति किसी भी प्रकार से उससे भिन्न ही क्यों ना हो जैसे- रंग रूप या बातों में विभिनता इत्यादि। संपर्क से आकर्षण और आकर्षण से प्यार उत्पन्न होता है और जब वह इसे स्वीकार करता है तो उसे खुशी का अनुभव होता है। शायद इसी का नाम प्यार है?
No comments:
Post a Comment