Sher 8 (मुकम्मल)
यूँ आसाँ नहीं होता, सच-झूठ समझ पाना कई नक़ाब पड़े हैं, एक चेहरे पे आजकल क्यों लगाएं मैंने ये ख़्वाहिशों के मेले, मालूम था जब ख़्वाब हक़ीक़त नहीं होते। कैसे निकालूँ दिल से, बता तुझे ऐ सनम मैंने तो दर-आए को भी गले लगाया है सज्दे की हक़ीक़त न जिन्हें मालूम, वह लगे हैं बेईमानों को ख़ुदा बनाने में। कब तक मुझे इन बंदिशों की हयात में जीना होगा, किस फ़र्ज़ की ग़ैरत के नाम जहन्नुम में जीना होगा। हज़ार ग़म हैं और एक मुसीबत भी तो है, जिसको चाहूं मैं, वही दूर चला जाता है। रुख़ से नक़ाब हटाकर नज़र अंदाज़ करती हो, माज़रा क्या है कि हिजाब से दीदार करती हो। अब मैं ख़ुद से भी रिहा होना चाहता हूँ, एक शख़्स ने छीन ली है आज़ादी मेरी।