जिंदगी के खेल में माहीर वही लोग बडे होते हैं
साथ रखना हमेशा बुजुर्गों को अपने
बलाएं छूती नहीं, जिन हाथ में ताबीज़ बंधे होते हैं
एक उलझन-सी है जो रास्ता भटका देती है
उलझी बात को और उलझा देता है
हवाएं ऐसी भी है यहां जो छुप के चलती हैं
कोई भटकती चिंगारी जहां मिली, सुलगा देती है
परिंदे याद करेंगे, ढूंढेंगे मेरा निशां
कुछ इस क़दर उनके ज़ेहन में उतर जाऊंगा
लोग लगे हैं काटने इस बरगद की जड़ें
मैं शाखों से उग जाऊंगा
ये मंजर भी एक रोज़ दिखलाऊंगा उसे
एक सरफ़रोश से रू-ब-रू कराऊंगा उसे
अभी एक हुकुम का इक्का बाकी है मेरी आस्तीन में
जब खेल ख़त्म करना होगा तो खेल जाऊंगा उसे
जरूरत कैसी-कैसी निकल आती है घर-बार में
मजबूरियां शराफ़त को भी ले आती है बाज़ार में
आज न जाने क्या ग़रज़ निकल आई
धरती की तरफ़ आसमां पिंघलने लगा
दर्द-ए-इश्क में मैं बद-हवास तो नहीं
लाइलाज हूं, बद-ज़ात तो नहीं
चार दिन लाए थे खुदा से लिखवाकर हयात में
दो सनम-परस्ती में गुजर गए, दो खुदा-परस्ती में
समंदर बड़ी खामोशी से जख़्मों को छुपाता हैं
दरिया थोड़ा बह लेती है तो रो देती है
एक सरफ़रोश से रू-ब-रू कराऊंगा उसे
अभी एक हुकुम का इक्का बाकी है मेरी आस्तीन में
जब खेल ख़त्म करना होगा तो खेल जाऊंगा उसे
जरूरत कैसी-कैसी निकल आती है घर-बार में
मजबूरियां शराफ़त को भी ले आती है बाज़ार में
आज न जाने क्या ग़रज़ निकल आई
धरती की तरफ़ आसमां पिंघलने लगा
दर्द-ए-इश्क में मैं बद-हवास तो नहीं
लाइलाज हूं, बद-ज़ात तो नहीं
चार दिन लाए थे खुदा से लिखवाकर हयात में
दो सनम-परस्ती में गुजर गए, दो खुदा-परस्ती में
समंदर बड़ी खामोशी से जख़्मों को छुपाता हैं
दरिया थोड़ा बह लेती है तो रो देती है
कैसी तौबा, कैसा सजदा, बेगुनाह के लिए
सब बेईमानी लगती है एक तन्हा के लिए
यह शहर भी बड़ा अजीब है मसीहाओं का
गुनहगार बेगुनाहों को आइना दिखा रहे हैं
मेरी ग़ैरत से ना इस कदर उलझा करो तुम
जब उतरती है तो लोग नज़र से उतर जाते हैं
एक तो ग़मे-आशिक़ी और ये मुफ़लिसी
सितम इतना ना जी सकता हूं, ना पी सकता हूं
मुश्किल है वफ़ा-ए-गुल की ज़मानतदारी
सुबह महकता हैं, शाम तक मुरझा जाता हैं
डूबे रहते हैं कई राज़ समंदर के सीने में
उलझी हैं कईं दरियाँ इसकी गहराई में
यह हमारी गलती थी हमें आज पता चला
दुनिया घूमनी थी जब एक मक़ाम पे बैठे रहे
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