भला कैसे किसी अजनबी को, मैं पनाह दूं
वो शख़्स ना समझा मेरे गहरे जज़्बात को
दर्द छुपाना भी बहुत तजुर्बे के बाद आया
कब छलक पड़े आंसू, ख़बर तक ना हुई
सिसकी भी, जुबां से ना होकर गुज़री
ना दे ग़मे-मोहब्बत की आंच मुझे
जाने कितने शोलें बुझा दिए मैंने
फूल असली भी हैं नकली भी दुनिया में
अब फैसला सिर तुम्हारे सूरत पे मरो या सीरत पे
मालूम होता ग़र ये खेल लकीरों का
तो ज़ख्मी कर हाथों को तेरी तक़दीर लिख लेता
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https://youtu.be/xw5aPipiZo0
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