Rewrite (Double)
मालूम होता ग़र ये खेल लकीरों का तो ज़ख्मी कर हाथों को तेरी तक़दीर लिख लेता यह पैग़ाम आया ख़ुदा का मुहब्बत कर ले 'सत्यं' अब क्या कुसूर मेरा जो दिल उन पे आ गया यह कैसे मुकाम पर हम आ खड़े हुए तुम्हें दिल में बसाकर भी तन्हा से लगते हैं यह कैसी सज़ा मुझें वो शख़्स दे गया के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा तुम बैठी रहो देर तक मेरी नज़रों के सामने आज मेरा मन है बहुत मदहोश होने का वो बेरुखी करते हैं मेरे दिल से जाने क्यों जिन्हें करीब से तमन्ना देखने की है जिनका घर है दिल मेरा वो दूर जा बैठे भला कैसे किसी अजनबी को मैं पनाह दूं पूछता जो खुदा तेरी रजा क्या है तो सबसे पहले तेरा नाम मैं लेता तेरे दीदार में कोई बात है शायद लड़खड़ाता है जिस्म मेरा इज़ाज़त के बिना तमाम कोशिशें बेकार ही रही संभल पाने की जब डूब गए हम तेरी आंखों की गहराई में शायद मेरी हसीना मेरे सामने खड़ी है इक जाफ़री ने कहा था वो मगरूर बड़ी होगी ग़र होती ख़्वाबों पे हुकूमत अपनी तो हर शब तेरा दीदार मैं करता एक मुद्दत से ज़ुबां ख़ामोश है मेरी सोचा कह दूं हाल-ए-दिल तड़प अच्छी नहीं होती मैं एक मुसाफ़िर हूं तेरी रज़ा की किश्ती का चाहे ...