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Showing posts from 2025

Rewrite (Double)

मालूम होता ग़र ये खेल लकीरों का तो ज़ख्मी कर हाथों को तेरी तक़दीर लिख लेता यह पैग़ाम आया ख़ुदा का मुहब्बत कर ले 'सत्यं' अब क्या कुसूर मेरा जो दिल उन पे आ गया यह कैसे मुकाम पर हम आ खड़े हुए तुम्हें दिल में बसाकर भी तन्हा से लगते हैं यह कैसी सज़ा मुझें वो शख़्स दे गया के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा तुम   बैठी रहो देर तक  मेरी नज़रों के सामने आज मेरा मन है बहुत मदहोश होने का वो बेरुखी करते हैं मेरे दिल से जाने क्यों जिन्हें करीब से तमन्ना देखने की है जिनका घर है दिल मेरा वो दूर जा बैठे भला कैसे किसी अजनबी को मैं पनाह दूं पूछता जो खुदा तेरी रजा क्या है तो सबसे पहले तेरा नाम मैं लेता तेरे दीदार में कोई बात है शायद लड़खड़ाता है जिस्म मेरा इज़ाज़त के बिना तमाम कोशिशें बेकार ही रही संभल पाने की जब डूब गए हम तेरी आंखों की गहराई में शायद मेरी हसीना मेरे सामने खड़ी है इक जाफ़री ने कहा था वो मगरूर बड़ी होगी ग़र होती ख़्वाबों पे हुकूमत अपनी तो हर शब तेरा दीदार मैं करता एक मुद्दत से ज़ुबां ख़ामोश है मेरी सोचा कह दूं हाल-ए-दिल तड़प अच्छी नहीं होती मैं एक मुसाफ़िर हूं तेरी रज़ा की किश्ती का चाहे ...

Sher 2 (मुकम्मल)

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हम बेख़ुदी में जिसको सज़दा करते रहे कभी गौर से ना देखा पत्थर बुत है वो तुझे सताने की मुझे बर्दाश्त की नेमत अता की है ख़ुदा ने हर इंसान बड़ी फ़ुर्सत लगाकर ही बनाया है झूठ नापने का अगर कोई पैमाना होता मिरी मुस्कुराहट को उसने ज़रा जाना होता हज़ारों मुहब्बत मिरे हिस्से आयी लेकिन जिसे टूट कर चाहा मैंने मिरा ना हुआ मैंने फिरायी थी 'सत्यं' रेत में उंगलियां ग़ौर से देखा तो तेरा अक़्स उभरने लगा

Sher (मुकम्मल)

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बात लफ़्ज़ों में हो लाज़िमी तो नहीं ख़मुशी भी कहती है हाल ए दिल यहां दिल बड़ा चाहिए इश्क़ उनसे छुपाने को हर किसी से तो यह तूफ़ां संभाला नहीं जाता जब तुझे आदत मेरी लग जाएगी तू मिरी हालत को समझ पाएगी जब भी फुर्क़त ने तेरी सताया मुझे मूंद कर आंखें सूरत तिरी देखा किये तेरे  रुख़  पे  जज़्बात  की शबनम गिरी है अब मै प्यार समझूं या परेशानी कहूं इसे मय पी कर तो मुझसे संभलते नहीं जज़्बात   मिरे होश में रहता हूं तो ख़ामोश बेहद रहता हू़ं मुझे कोई बेबाक ही सा समझ रक्खा है? फिर इश्क़ तुझे खाक़ ही सा समझ रक्खा है? प्यार क्या है ये बीमार को पता है शिफ़ा है या सज़ा समझदार को पता है सबके हिस्से हिस्से-दारी होनी चाहिए सबकी चादरो-दीवारी होनी चाहिए टूटी खाट उधडी ही रजाई क्युं ना हो आंखों में मगर 'सत्यं' ख़ुद्दारी होनी चाहिए

गजल-2 (मुकम्मल)

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इश्क़ में बहोत लोगों के ख़सारे हो गए हमें भी मुहब्बत में ऐसे नज़ारे हो गए वैसे तो वो मुस्कुरा कर रोज़ देखा करती थी इस भरम में सब ज़माने बस पुराने हो गए चांद ने जो ओढ़ रक्खी थी हटा दी वो घटा आंखों के आगे हमें दिलकश उजाले हो गए जिस तरीक़े तौर से देखा हमें उस क़ातिल ने उसके सारे ऐब ओ ख़ामी हमारे हो गए जिसने मुड़कर भी मेरी जानिब ना देखा इक दफ़ा उसकी बेरुख़ी पे नामी मेरे फ़साने हो गए तेरी जुल्फ़ों की वो तासीर लबों का ज़ाइक़ा जाइज़ा तेरे बदन का सब ज़माने हो गए ------------------------------------------

Sher 1 (मुकम्मल)

मेरे हुजरे में ना रख सामान मुजरे का काफ़िरों की बस्ती में इक नेक रहने दे मय पी कर नादां जज़्बात मेरे बहकते हैं होश में यार ख़ामोश मैं बहुत रहता हूं वज़ह ऐसी के लबों पर अपने चुप्पी रखता हूं मुझपे यह इल्ज़ाम है मैं हक़ जमाने लगता हूं मेरी नज़रें जब उसकी जुल्फ़ों में उलझ जाती है जगते रहते हैं रातों में नींद कहां आती है यह कैसी मुझे सज़ा दे गया वो सितंगार के क़त्ल भी ना किया और ज़िंदा भी ना छोड़ा आज यह कैसी मंज़िल पे हम आ खड़े हुए  तुमको दिल में बसा कर भी तन्हा से लगते हैं मुश्किल है वफ़ा-ए-गुल की ज़िम्मेदारी खिलता सुबह शब तक मुरझा वो जाता हैं यू आसां नहीं होता सच झूठ को पाना कई पर्दे हैं अब पड़े एक चेहरे प जफ़ा फ़रेब दर्द अश्क़ होंगे महफ़िलों की तरह  रस्ते में इश्क के मिलेंगे संग ए मीलों की तरह ख़ुदा  की है रहमत ये मेरे मुक़द्दर में वगरना   सितमगर  वो मासूम ना होता कैसी तौबा कैसा सज़्दा बेगुनाह के लिए सब बे-ईमानी है यारों एक तन्हा के लिए मैं चेहरे पर खुशी की झलक रखता हूं अंदर से टूटा हूं दुश्मन नज़र रखता हूं आज जाने गरज़ कैसी निकाल आई आसमां इक जमीं पर पिघलने लगा दर्द...

ग़ज़ल-1 (मुकम्मल)

सबके हिस्से हिस्सेदारी होनी चाहिए सबकी अपनी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए ख़ुद की ख़ातिर ख़ुद से भी फ़ुर्सत मांगा करो आंखों में इतनी ख़ुद्दारी होनी चाहिए इक मैं ही बेइंतेहा तुझपे मरता रहूं मिरे दिल पे तिरी दावेदारी होनी चाहिए रस्ता लंबा है दोनों की मंज़िल एक है हम में कोई रिश्तेदारी होनी चाहिए धोखा अपने ही दे देते हैं अक्सर यहां अपनी मुट्ठी में दुनियादारी होनी चाहिए कुछ ऐसे कर कायम हरसू अपना रुतबा हर गली कूचे में ताबेदारी होनी चाहिए

ग़मगीन शायरी

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पहले मेरे दिल में वो शमां-ए-मोहब्बत जलाता रहा फिर जुनून पे मेरे कामयाबी की राह बनाता रहा जिसको लेकर गया था मैं एक रोज़ बुलंदी पर वही पल-पल अपनी नज़र से मुझे गिरता रहा वो मेरी हदे-तसव्वुर से गुजरता क्युं नहीं नशा उसके अंदाज़ का उतरता क्युं नहीं मैं हैरान हूं यूं सोचकर उसके बारे में वक़्त के साथ हुस्न उसका ढलता क्युं नहीं सारे सच उसके झूठ में बदलने लगे यह सोचकर मेरी आंख से आंसू उतरने लगे गले लगा कर करता था वो वफ़ा की बात आज सोचा तो जिस्म से दम पिघलने लगे गुनाहों का सूरज निकाला जा रहा है जनाज़ा बेबसी का निकाला जा रहा है ज़माना जिसके नाम से हमें जानता है उसी दौलत को बस निकाला जा रहा है उजाले कफ़न ओढ़कर सोने लगे सहारे सिरों को झुका रोने लगे जहां देखो मातम है छाया हर तरफ फ़रिश्ते ख़ुदा की मौत पर रोने लगे

अंधेरे का सूरज निकला जा रहा है

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अंधेरे का सूरज निकाला जा रहा है संभले हालत को संभाला जा रहा है सच को हर सूरत में छुपाया जाता है झूठ का अख़बार निकाला जा रहा है कट रही उंगलियां नोचे जा रहे जिस्म ग़रीब को दहशत की आदत में ढ़ाला जा रहा है मौसम की नज़ाकत समझो दौरे हाज़िर में पगड़ियों को सरे आम उछाला जा रहा है कल उंगलियां पकड़ जिनकी यतीम बड़े हुए उन्हीं की परवरिश में नुक़्स निकाला जा रहा है कई सांप जकड़े है एक सोन चिड़िया को पालने वाले पर इल्ज़ाम डाला जा रहा है  रखो नज़र दहलीज़ पर ये दौर तुम्हारा है हमारी पुरानी आंख का उजाला जा रहा है मिशाल मुहब्बत की इस क़दर करो क़ायम  जो देखे यही कहे हिंदुस्तान वाला जा रहा है